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"पवित्र अथर्ववेद में सृष्टी रचना का प्रमाण"


     "पवित्र अथर्ववेद में सृष्टी रचना का प्रमाण"
          काण्ड नं. । अनुवाक नं. । मंत्र नं 1 :- 
ब्रह्म जज्ञानं प्रथर्म पुरस्ताद वि सीमतः सुरुचो वेन आव । स बुज्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसतश्च वि ॥ः।।।।।

 ब्रह्म-ज-ज्ञानम-प्रथमम्-पुरस्तात्-विसिमतः-सुरुचः-वेन-आवः सा
बुन्याः - उपमा अस्य-विष्ठा-सतः-च-योनिम् असत: च--वि  वः
       अनुवाद - (प्रथमम्) प्राचीन अर्थात् सनातन (ब्रह्म) परमात्मा ने (ज) प्रकट होकर (ज्ञानम्) अपनी सूझ-बूझ से (पुरस्तात) शिखर में अर्थात् सतलोक आदि को (सुरुस्व इच्छा से बड़े चाव से स्वप्रकाशित (विसिमतः) सीमा रहित अर्थात् विशाल सोमा भिन्न लोकों को उस (वैन) जुलाहे ने ताने अर्थात् कपडे की तरह बुनकर (आव) सुर किया (च) तथा (स.) वह पूर्ण बहा ही सर्व रचना करता है (अस्य) इसलिए उसी (बुन्या मूल मालिक ने (योनिम) मूलस्थान सत्यलोक की रचना की है (अस्य) इस के (उपन सदृश अर्थात् मिलते जुलते (सत) अक्षर पुरुष अर्थात परब्रह्म के लोक कुछ स्थाई (र तथा (असतः) क्षर पुरुष के अस्थाई लोक आदि (वि व) आवास स्थान निन्न (विष्ठा स्थापित किए।
भावार्थ :- पवित्र वेदों को बोलने वाला ब्रह्म (काल) कह रहा है कि सनातन परमेश्वर ने स्वयं अनामय (अनामी) लोक से सत्यलोक में प्रकट होकर अपनी सूझ-बूझ से कपड़े की तरह रचना करके ऊपर के सतलोक आदि को सीमा राति स्वप्रकाशित अजर अमर अर्थात् अविनाशी ठहराए तथा नीचे के परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्ड व इनमें छोटी-से छोटी रचना भी उसे परमात्मा ने अस्थाई की है।
  
काण्ड नं.4 अनुवाक नं. | मंत्र नं. 2- 
इयं पित्र्या राष्ट्रवेत्वग्रे प्रथमाय जनुषे भुवनेष्ठा:।
तस्मा एतं सुरुचं ह्यारमहायं घर्म श्रीणन्तु प्रथमाय नस्यवे ।12।। इयम्-पित्र्या-राष्ट्रि-एतु-अग्रे-प्रथमाय-जनुषे-मुवनेष्ठा:- हवारमह्यम्-धर्मम्-श्रीणान्तु-प्रथमाय-धास्यवे एतम्-सुरुच

अनुवाद :- (इयम्) इसी (पित्र्या) जगतपिता परमेश्वर ने (एतु) इस (अग्रे) सर्वासन (प्रथमाय) सर्व से पहली माया परानन्दनी (राष्ट्रि) राजेश्वरी शक्ति अर्थात् पराशक्षित जिसे आकर्षण शक्ति भी कहते हैं, को (जनुषे) उत्पन्न करके (भुवनेष्ठाः) लोक स्थापन की (तस्मा) उसी परमेश्वर ने (सुरुचम्) बड़े चाव के साथ स्वेच्छा से (एतम) इस (प्रथमाय) प्रथम उत्पत्ति की शक्ति अर्थात् पराशक्ति के द्वारा (प्ररमहाम) एक दूसरे के वियोग को रोकने अर्थात् आकर्षण शक्ति के (श्रीणान्तु) गुरूत्व आकर्षण को परमात्मा ने आदेश दिया सदा रहो उस कभी समाप्त न होने वाले (धर्मम्) स्वभाव से (धास्यय) धारण करके ताने अर्थात् कपड़े की तरह बुनकर रोके हुए है ।
 
भावार्थ :- जगतपिता परमेश्वर ने अपनी शब्द शक्ति से राष्ट्री अर्थात् सबसे पहली माया राजेश्वरी उत्पन्न की तथा उसी पराशक्ति के द्वारा एक-दूसरे को आकर्षण शक्ति से रोकने वाले कभी न समाप्त होने वाले गुण से उपरोक्त सर्व ग्रह्मण्डों को स्थापित किया है।
यह भी पढ़ें:-
काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. । मंत्र नं. 3:-
प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति। ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ।3।। 
प्र-य-जज्ञे-विद्वानस्य-बन्धु-विश्या-देवानाम्-जनिमा-विवक्ति-ब्रहा:-ब्रह्मण उज्जभार-मध्यात्-निचैः-उच्चैः स्वधा-अभिः-प्रतस्थौ
 
 
अनुवाद :- (प्र) सर्व प्रथम (देवानाम्) देवताओं व ब्रह्मण्डों की (जज्ञे) उत्पति के ज्ञान को (विद्वानस्य) जिज्ञासु भक्त का ( य) जो (बन्धु) वास्तविक साथी अर्थान पूर्ण परमात्मा ही अपने निज सेवक को (जनिमा) अपने द्वारा सृजन किए हुए को ( विवक्ति) स्वयं ही ठीक-ठीक विस्तार पूर्वक बताता है कि (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा ने (मध्यात) अपने मध्य से अर्थात् शब्द शक्ति से (ब्रह्मः) ब्रह्म क्षर पुरूष अर्थात् काल को ( उज्जभार) उत्पन्न करके (विश्वा) सारे संसार को अर्थात् सर्व लोकों को (उच्चै) ऊपर सत्यलोक आदि (निः) नीचे परब्रह्म व ब्रह्म के सर्व ब्रह्मण्ड (स्वधा) अपनी घारण करने वाली (अभिः) आकर्षण शक्ति से (प्र तस्थी) दोनों को अच्छी प्रकार स्थित किया।


भावार्थ :- पूर्ण परमात्मा अपने द्वारा रची सृष्टी का ज्ञान तथा सर्व आत्माओं की उत्पत्ति का ज्ञान अपने निजी दास को स्वयं ही सही बताता है कि पूर्ण परमात्मा ने अपने मध्य अर्थात् अपने शरीर से अपनी शब्द शक्ति के द्वारा ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) की उत्पत्ति की तथा सर्व ब्रह्माण्डों को ऊपर सतलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक आदि तथा नीचे परब्रह्म के सात संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म के 21 ब्रह्मण्डों को अपनी धारण करने वाली आकर्षण शक्ति से ठहराया हुआ है।
जैसे पूर्ण परमात्मा कबीर परमेश्वर (कविर्देव) ने अपने निजी सेवक अर्थात सखा श्री धर्मदास जी, आदरणीय गरीबदास जी आदि को अपने द्वारां रची सृष्टी का ज्ञान स्वयं ही बताया। उपरोक्त वेद मंत्र भी यही समर्थन कर रहा है।

काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र नं. 4
स हि दिवः सः पृथिव्या ऋतस्था मही क्षेमं रोदसी अस्कभायत्। महान् मही अस्कभायद् वि जातो द्यां सद्म पार्थिवं च रजः।।4 ।। सः-हि-दिवः-स-पृथिव्या-ऋतस्था-मही-क्षेमम् रोदसी-अकस्भायत्- 
महान् -मही अस्कभायद्-विजात:-धाम्-सदम्-पार्थिवम्-च-रजः

अनुवाद - (स)उसी सर्वशक्तिमान परमात्मा ने (हि) निःसंदेड (दिव) ऊपर के चारों दिव्य लोक जैसे सत्य लोक, अलख लोक, अगम लोका तथा अनाभी अर्थात् अकह लोक अति दिव्य गुणों युक्त लोकों को (ऋतस्था) सरय रिथर अर्थात् अजर-अगर रूप स्वार किए (स) उन्हीं के समान (पृथिव्या) नीचे के पृथ्वी गाले सर्व लोकों जैसे परब्रह्म के सात संख तथा ब्रह्म/काल के इक्कीस ब्रह्मण्ड (मही) पृथ्वी तत्व से (क्षमम्) सुरक्षा के साथ (अस्कभायत्) ठाहराया (रोदसी) आकाश तत्व तथा पृथ्वी तत्व दोनों से ऊपर कये के प्रह्माण्कों को जैसे आकाश एक सुक्ष्म तत्व है. आकाश का गुण शब्द है. पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के लोक शब्द रूप रचे जो तेजपुंज के बनाए है तथा नीचे के परब्र (असार पुरूष) के सप्त संख ब्रह्मण्ड तथा ब्रह्म/वार पुरूष के इक्कीस ब्रह्मप्डों को पृथ्वी तत्व से अस्थाई रचा) (महान) पूर्ण परमात्मा ने (पार्थिवम्) पृथ्वी वाले ( वि) भिन्न-भिन्न आाम) लोक (च) और (सदम्) आवास स्थान (मही) पृथ्वी तत्व से (रज:) प्रत्येक ब्रह्मण्ड छोटे-छोटे लोकों की (जातः) रचना करके (अस्कभायत) स्थिर किया।

भावार्थ :- ऊपर के चारों लोक सत्यलोक, अलख लोक, अगम लोक, अनामी लोक, यह तो अजर-अमर स्थाई अर्थात् अविनाशी रचे हैं तथा नीचे के ब्रह्म तथा के लोकों को अस्थाई रचना करके तथा अन्य छोटे-छोटे लोक भी उसी परमेश्वर ने रच कर स्थिर किए।

काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. । मंत्र 5

सः बुध्यादाष्ट्र जनुषोऽभ्यग्रं बृहस्पतिर्देवता तस्य सम्राट्। अहर्यच्छुक्रं ज्योतिषो जनिष्टाथ द्युमन्तो वि वसन्तु विप्राः ।।5।।

सः-बुध्न्यात्-आष्ट्र-जनुषे:-अभि-अग्रम-वृहस्पतिः-देवता-तस्य सम्राट-अह-यत्-शुक्रम्-ज्योतिषः-जनिष्ट अथ-घुमन्तः-वि-वसन्तु-विप्राः 
अनुवाद :- (सः) उसी (बुघ्न्यात) मूल मालिक से (अमि-अग्रम्) सर्व प्रथम स्थान पर (आष्ट्र) अष्टेंगी माया-दुर्गा अर्थात् प्रकृति देवी (जनुषः) उत्पन्न हुई क्योंकि नीचे के परब्रह्म व ब्रह्म के लोकों का प्रथम स्थान सतलोक है यह तीसरा धाम भी कहलाता है (तस्य) इस दुर्गा का भी मालिक यही (सम्राट) राजाधिराज (बृहस्पतिः) सबसे बड़ा पति व जगतगुरु (देवता) परमेश्वर है। (यत्) जिस से (अहः) सबका वियोग हुआ (अरथ) इसके बाद (ज्योतिषः) ज्योति रूप निरंजन अर्थात् काल के (शुक्रम) वीर्य अर्थात् बीज शक्ति से (जनिष्ट) दुर्गा के उदर से उत्पन्न होकर (विप्राः) भक्त आत्माएं (वि) अलग से (दयुमन्त) मनुष्य लोक तथा स्वर्ग लोक में ज्योति निरंजन के आदेश से दुर्गा ने कहा (वसन्तु) निवास करो, अर्थात् वे निवास करने लगी।
 भावार्थ :- पूर्ण परमात्मा ने ऊपर के चारों लोकों में से जो नीचे से सबसे प्रथम अर्थात् सत्यलोक में आष्ट्रा अर्थात् अष्टंगी (प्रकृति देवी / दुर्गा) की उत्पत्ति की। यही राजाधिराज, जगतगुरु, पूर्ण परमेश्वर (सतपुरुष) है जिससे सबका वियोग हुआ है । फिर सर्व प्राणी ज्योति निरंजन (काल) के (वीय) बीज से दुर्गा (आष्ट्रा) के : उत्पन्न होकर स्वर्ग लोक व पृथ्वी लोक पर निवास करने लगे।


काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. 1 मंत्र 6 5

नूनं तदस्य काव्यो हिनोति महो देवस्य पूर्व्यस्य धाम।। एष जज्ञे बहुभिः साकमित्था पूर्वे अर्धे विषिते ससन् नु। 161। नूनम् तत् अस्य-काव्यः-महः-देवस्य-पूर्व्यस्य-धाम-हिनोति-पूर्व विषिते-एष- जज्ञे बहुभिः-साकम् इत्था अ्धे-ससन्-नु।

अनुवाद - (नूनम्) निसंदेह (तत) वह पूर्ण परमेश्वर अर्थात् तत् ब्रह्म ही अस्या इस (काव्यः) मक्त आत्मा जो पूर्ण परमेश्वर की भक्ति विधिवत करता है को वापिस (महः सर्वशक्तिमान (देवस्य) परमेश्वर के (पूर्व्यस्य) पहले के ( धाम) लोक में अर्थात् सत्यलोक में (हिनोति) भेजता है।(पूर्व) पहले वाले (विषिते) विशेष चाहे हुए (एष) इस परमेश्वर को व (जज्ञे) सृष्टी उत्पति के ज्ञान को जान कर (बहुभिः) बहुत आनन्द (साकम्) के साथ (अर्धे) आया(ससन) सोता हुआ (इत्था) विधिवत् इस प्रकार (नु) सच्ची आत्मा से स्तुति करता है। 
  
भावार्थ :- वही पूर्ण परमेश्वर सत्य साधना करने वाले साधक को उसी पहले वाले स्थान (सत्यलोक) में ले जाता है, जहाँ से बिछुड कर आए थे। वहाँ उस वास्तविक सुखदाई प्रभु को प्राप्त करके खुशी से आत्म विभोर होकर मस्ती से स्तुति करता है कि हे परमात्मा असंख्य जन्मों के भूले-भटकों को वास्तविक ठिकाना मिल गया। इसी का प्रमाण पवित्र ऋग्वेद मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 16 में भी है।

आदरणीय गरीबदास जी को इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा कविर्देव (कबीर परमेश्वर) स्वयं सत्यभक्ति प्रदान करके सत्यलोक लेकर गए थे, तब अपनी अमृतवाणी में आदरणीय गरीबदास जी महाराज ने आँखों देखकर कहा: गरीब, अजब नगर में ले गए. हम' सतगुरु आन । झिलके बिम्च अगाध गति, सुते चादर तान।।

काण्ड नं. 4 अनुवाक नं. । मंत्र 7
योऽथर्वाणं पित्तरं देवबन्धुं वृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्
त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत् स्यधावान ।।१।। यः-अथर्वाणम्-पितरम्-देवबन्धुम् बृहस्पतिम्-नमसा-अव-च-गच्छात्-त्वम् विश्वेषाम् जनिता यथा-सः-कविर्देवः-न-दभायत-स्वधावान्
अनुवाद - (य) जो (अथर्वाणम्) अचल अर्थात् अविनाशी (पितरम्) जगत पिता (देव बन्धुम्) भक्तों का वास्तविक साथी अर्थात् आत्मा का आधार (बृहस्पतिम्) जगतगुरु (च) तथा (नमसा) विनम्र पुजारी अर्थात् विधिवत् साधक को ( अव) सुरक्षा के साथ (गच्छात) सतलोक गए हुओं को सतलोक ले जाने वाला (विश्वेषाम) सर्व ब्रह्मण्डों की (जनिता) रचना करने वाला जगदम्बा अर्थात् माता वाले गुणों से भी युक्त (न दभायत) काल की तरह धोखा न देने वाले (स्वधावान्) स्वभाव अर्थात् गुणों वाला (यथा) ज्यों का त्यों अर्थात वैसा ही (सः) वह (त्वम्) आप (कविर्देवः/ कविरदेव) कविर्देव है अर्थात् भाषा भिन्न इसे कबीर परमेश्वर भी कहते हैं।

भावार्थ :- इस मंत्र में यह भी स्पष्ट कर दिया कि उस परमेश्वर का नाम कविर्देव अर्थात् कबीर परमेश्वर है, जिसने सर्व रचना की है । जो परमेश्वर अचल अर्थात् वास्तव में अविनाशी (गीता अध्याय 15 श्लोक16-17 में भी प्रमाण है) जगत् गुरु, आत्माधार, जो पूर्ण मुक्त होकर सत्यलोक गए हैं उनको सतलोक ले जाने वाला, सर्व ब्रह्मण्डों का रचनहार, काल (ब्रह्म) की तरह धोखा न देने वाला ज्यों का त्यों वह स्वयं कविर्देव अर्थात् कबीर प्रभु है । यही परमेश्वर सर्व ब्रह्मण्डों व प्राणियों को अपनी शब्द शक्ति से उत्पन्न करने के कारण (जनिता) माता भी कहलाता है तथा (पित्तरम्) पिता तथा (बन्धु) भाई भी वास्तव में यही है तथा (देव) परमेश्वर भी यही है। इसलिए इसी कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की स्तुति किया करते हैं। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धु च सखा त्वमेव, त्वमेव विद्या च द्रविणंम त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव। इसी परमेश्वर की महिमा का पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 1 सूक्त नं. 24 में विस्तृत विवरण है।

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