राधास्वामी पंथ का पर्दाफाश
राधास्वामी पंथ श्री शिवदयाल जी का चलाया मनमुखी पंथ है इसका परमात्मा के तत्वज्ञान से दूर दूर तक भी कोई संबंध नहीं है। भक्त समाज से प्रार्थना है कि सतभक्ति को जानने के लिए कबीर परमात्मा के अवतार संत रामपाल जी महाराज जी का ज्ञान सुनें जो सर्व वेद, शास्त्रों और गीता के आधार पर प्रमाण सहित तथ्य सामने रखते हैं। राधास्वामी पंथ का ज्ञान उन्हीं की पुस्तकों से पाठकजन के समक्ष रख रहे हैं। हंस भगत अवश्य बुद्धि के विवेक से ज्ञान और अज्ञान की परख कर लेंगे।
राधास्वामी पंथ का ज्ञान किसान के पुत्र की अंग्रेजी जैसा है उदाहरण के लिए पढ़ें यह छोटी सी कहानी —
एक जमींदार का पुत्र सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने कुछ अंग्रेजी भाषा को जान लिया था। एक दिन दोनों पिता पुत्र खेतों में बैल गाड़ी लेकर जा रहे थे। सामने से एक अंग्रेज कार लेकर आ गया। उसने बैलगाड़ी वालों से अंग्रेजी भाषा में रास्त्ता जानना चाहा। पिता ने पुत्र से कहा बेटा यह अंग्रेज अपने आपको ज्यादा ही शिक्षित सिद्ध करना चाहता है। आप भी तो अंग्रेजी भाषा जानते हो। निकाल दे इसकी मरोड़। सुना दे अंग्रेजी बोल कर। किसान के लड़के ने अंग्रेजी भाषा में बीमारी की छुट्टी के लिए प्रार्थना-पत्र पूरा सुना दिया। अंग्रेज उस नादान बच्चे की नादानी को भांप कर, कि पूछ रहा हूँ रास्त्ता, सुना रहा है बीमारी की छुट्टी का प्रार्थनापत्र। अपनी कार लेकर माथे में हाथ मार कर चल पड़ा। किसान ने अपने विजेता पुत्र की कमर थप-थपाई तथा कहा वाह पुत्र! मेरा तो जीवन सफल कर दिया। आज तुने अंग्रेज को अंग्रेजी भाषा में पराजित कर दिया। तब पुत्र ने कहा पिता जी अभी तो मुझे ‘माई बैस्ट फ्रेंड निबंध’ (मेरा खास दोस्त नामक प्रस्त्ताव) भी याद है। वह सुना देता तो अंग्रेज कार गाड़ी छोड़ कर भाग जाता। इसी प्रकार कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा राधास्वामी कुनबा जोड़ा। मनुष्य शरीर परमात्मा को पहचान कर सतभक्ति करके मोक्ष प्राप्त करने के लिए मिला है परंतु राधास्वामी मत में नकली भक्ति करते करते साधकों के गोडे (घुटने) खराब हो गए । न सतभक्ति मिली, न सतज्ञान, न परमात्मा का साक्षात्कार हुआ।
राधास्वामी पंथ की शुरुआत
शहर आगरा, पन्नी गली निवासी श्री शिवदयाल सिंह जी से राधास्वामी पंथ चला है। राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक श्री शिवदयाल जी का कोई गुरु जी नहीं था। प्रमाण के लिए पुस्तक ’’जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज’’ के पृष्ठ 28 पर देखें। श्री शिव दयाल सिंह जी ने 17 वर्ष तक कोठे में कोठा अर्थात् बन्द स्थान पर बैठ कर हठ योग किया। जो किसी भी संत की साधना से मेल नहीं खाता। उन्होंने सन् 1861 में सत्संग करना प्रारम्भ किया। सन् 1856 में बाबा जयमल सिंह जी ने श्री शिवदयाल जी से उपदेश (नाम प्राप्त) किया। श्री शिवदयाल जी (राधास्वामी) के कोई गुरु नहीं थे। इससे सिद्ध यह हुआ कि जिस समय बाबा जयमल सिंह जी को श्री शिवदयाल सिंह जी (राधास्वामी) ने नाम दान किया उस समय तक तो श्री शिवदयाल जी साधक थे। पूरे संत नहीं हुए थे, अधूरे थे क्योंकि श्री शिवदयाल जी ने साधना पूरी करके सन् 1861 में सत्संग करना प्रारम्भ किया। उससे पूर्व तो वे अधूरे थे। बाबा जयमल सिंह जी ने उपदेश 1856 में 5 वर्ष पूर्व एक साधक (रंगरूट) से उपदेश ले लिया। जो अभी ट्रेनिंग भी पूरी नहीं कर पाया था।
कबीर परमेश्वर जी ने कहा है :-
झूठे गुरुवा काल के दूत हैं, देंवे नरक धकेल। काच्ची सरसौं पेल कर, खल हुआ ना तेल।।
श्री शिवदयाल जी से आगे निम्न शाखाएं चली हैं :- श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जिनके तीन मुख्य शिष्य हुए 1. श्री जयमल सिंह (डेरा ब्यास) 2. जयगुरुदेव पंथ (मथुरा में) 3. श्री तारा चंद (दिनोद जि. भिवानी)। इनसे आगे निकलने वाले पंथ :- 1. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री जगत सिंह 2. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयगुरु देव पंथ (मथुरा में) 3. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) श्री ताराचंद जी (दिनोद जि. भिवानी) 4. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) 5. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) श्री सतनाम सिंह जी (सिरसा) 6. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री खेमामल जी उर्फ शाह मस्ताना जी (डेरा सच्चा सौदा सिरसा) श्री मनेजर साहेब (गांव जगमाल वाली में) 7. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री कृपाल सिंह (सावन कृपाल मिशन दिल्ली) 8. श्री शिवदयाल जी (राधा स्वामी) जयमल सिंह (डेरा ब्यास) श्री सावन सिंह श्री कृपाल सिंह (सावन कृपाल मिशन दिल्ली) । श्री ठाकुर सिंह जी श्री जयमल सिंह जी ने दीक्षा प्राप्त की सन् 1856 में श्री शिवदयाल सिंह जी (राधा स्वामी) की मृत्यु सन् 1878 में 60 वर्ष की आयु में हुई। श्री जयमल सिंह जी सेना से निवृत हुए सन् 1889 में अर्थात् श्री शिवदयाल सिंह जी (राधा स्वामी) की मृत्यु के 11 वर्ष पश्चात् सेवा निवृत होकर 1889 में ब्यास नदी के किनारे डेरे की स्थापना करके स्वयंभू संत बनकर नाम दान करने लगे। यदि कोई कहे कि शिवदयाल सिंह जी ने बाबा जयमल सिंह को नाम दान करने को आदेश दिया था। यह उचित नहीं है क्योंकि यदि नाम दान देने का आदेश दिया होता तो श्री जयमल सिंह जी पहले से ही नाम दान प्रारम्भ कर देते। बाबा जयमल सिंह जी से उपदेश प्राप्त हुआ श्री सावन सिंह जी को तो श्री सावन सिंह उत्तराधिकारी हुए श्री जयमल सिंह जी के यानी डेरा बाबा जयमल सिंह (ब्यास) के।
राधास्वामी पंथ की यह सभी शाखाएं एक ही कुंए का पानी हैं कबीर साहेब जी की वाणियों, साखियों और शब्दों को आधार बनाकर यहां सत्संग किए जाते हैं व गलत नाम जाप करने को दिए जाते हैं।
राधास्वामी पंथ, डेरा सच्चा सौदा सिरसा तथा सच्चा सौदा जगमाल वाली, गंगवा गांव में भी श्री खेमामल के बागी शिष्य ने डेरा बना रखा है तथा जय गुरूदेव पंथ मथुरा वाला तथा श्री तारा चन्द जी का दिनोद गाँव वाला राधास्वामी डेरा तथा डेरा बाबा जयमल सिंह ब्यास वाला तथा कृपाल सिंह व ठाकुर सिंह वाला राधास्वामी पंथ सबका सब गोलमाल है। यह काल का फैलाया हुआ जाल है। इस से बचो तथा सन्त रामपाल जी महाराज के पास आकर नाम दान लो तथा अपना कल्याण कराओ। राधास्वामी पंथ, जयगुरूदेव पंथ तथा सच्चा सौदा सिरसा व जगमाल वाली पंथों में श्री शिवदयाल सिंह के विचारों को आधार बना कर सत्संग सुनाया जाता है। श्री शिवदयाल सिंह जी स्वयं भी इन्हीं पांच नामों (ररंकार, औंकार, ज्योति निरंजन, सोहं तथा सतनाम) का जाप करते थे। वे मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके और प्रेत योनी को प्राप्त होकर अपनी शिष्या बुक्की में प्रवेश होकर अपने शिष्यों की शंका का समाधान करते थे। जिस पंथ का प्रर्वतक ही भूत बनकर अपनी शिष्या में प्रवेश कर गया तो अन्य अनुयाइयों का क्या बनेगा? प्रमाण के लिए अवश्य देखें ‘जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज’’ के पृष्ठ 78 से 81 विश्वभर में राधास्वामी विचारधारा का पालन करने वाले दो करोड़ से भी अधिक लोग हैं। सभी के जीवन में राग, द्वेष, कलह, शारीरिक और मानसिक रोग विद्यमान हैं।
राधास्वामी पंथ का ज्ञान बिल्कुल शास्त्र विरुद्ध है।
राधास्वामी पंथ के मुखिया शिव दयाल जी को सतनाम का कोई ज्ञान नहीं था। राधास्वामी पंथ वाले कहते हैं आत्मा सतलोक में जाकर लीन हो जाती है जैसे समुन्द्र में बूंद। विचार करिए समुंद्र में डूब कर कौन मरेगा।
राधास्वामी पंथ का सिद्धान्त है कि सतपुरूष निराकार है। जबकि हमारे सदग्रंथ कहते हैं कि परमात्मा सशरीर है, साकार है, चारों युगों में स्वयं सतलोक से चलकर आता है और अपनी विशेष कृपा पात्र आत्माओं को मिलता है। शिवदयाल जी चरण छुआते थे। वर्तमान राधास्वामी गुरु कहते हैं कि चरण छुआने वाला गुरु नहीं होता।
सतनाम के प्रमाण के लिए कबीर पंथी शब्दावली (पृष्ठ नं. 266.267)।
।।अक्षर आदि जगत में, जाका सब विस्तार। सतगुरु दया सो पाइये, सतनाम निजसार। सतगुरु की परतीति करि, जो सतनाम समाय। हंस जाय सतलोक को, यमको अमल मिटाय। वह सतनाम-सारनाम उपासक सतलोक चला जाता है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। हम सबने कबीर साहिब के ज्ञान को पुनः पढ़ना चाहिए तथा सोचना चाहिए कि सतलोक प्राप्ति केवल कबीर साहिब के द्वारा दिए गए मन्त्र से होगी। धर्मदास जी को सतनाम कबीर साहेब जी ने दिया था।
।। सतनाम का गरीबदास जी महाराज की वाणी में भी प्रमाण है। गरीबदास जी महाराज कहते हैं कि :
।।ऊँ सोहं पालड़ै रंग होरी हो, चौदह भुवन चढावै राम रंग होरी हो। तीन लोक पासंग धरै रंग होरी हो, तो न तुलै तुलाया राम रंग होरी हो।।
इसका अर्थ है सत्यनाम यदि भक्त आत्मा को मिल गया, वह (स्वाँसों से सुमरण होता है) एक स्वाँस-उस्वाँस भी इस मन्त्र का जाप हो गया तो उसकी कीमत इतनी है कि एक स्वाँस-उस्वाँस के मन्त्र का एक जाप तराजू के एक पलड़े में दूसरे पलड़े में चौदह भुवनों को रख दें तथा तीन लोकों को पलड़े समान करने के लिए रख दे तो भी एक स्वाँस का (सत्यनाम) जाप की कीमत ज्यादा है अर्थात् बराबर भी नहीं है। पूर्ण संत से उपदेश प्राप्त करके नाम जाप करने से लाभ होगा। जैसे रजिस्ट्री पर तहसीलदार हस्ताक्षर करेगा तो काम बनेगा, कोई स्वयं ही हस्ताक्षर कर लेगा तो व्यर्थ है।
इसी का प्रमाण साहेब कबीर देते हैं –
कबीर, कहता हूँ कही जात हूँ, कहूँ बजा कर ढोल।
स्वाँस जो खाली जात है, तीन लोक का मोल।।
कबीर, स्वाँस उस्वाँस में नाम जपो, व्यर्था स्वाँस मत खोय।
न जाने इस स्वाँस को, आवन होके न होय।।
इसलिए यदि गुरु मर्यादा में रहते हुए सत्यनाम जपते-जपते भक्त प्राण त्याग जाता है, सारनाम प्राप्त नहीं हो पाता, उसको भी सांसारिक सुख सुविधाएँ, स्वर्ग प्राप्ति और लगातार कई मनुष्य जन्म भी मिल सकते हैं और यदि पूर्ण संत न मिले तो फिर चौरासी लाख जूनियों व नरक में चला जाता है।
कबीर साहिब ने सत्यनाम गरीबदास जी छुड़ानी (हरियाणा) वाले, को दिया, घीसा संत जी (खेखड़े वाले) को दिया, नानक जी (तलवंडी जो अब पाकिस्तान में है) को दिया। ।। श्री नानक साहेब की वाणी में सतनाम का प्रमाण।।
प्रमाण के लिए पंजाबी गुरु ग्रन्थ साहिब के पृष्ठ नं. 59-60 पर सिरी राग महला 1 (शब्द नं. 11) बिन गुर प्रीति न ऊपजै, हउमै मैलु न जाइ।
सोहं आपु पछाणीऐ, सबदि भेदि पतीआइ।।
मनमुखी (मनमानी साधना करने वाला) साधक या जिसको पूरा संत नहीं मिला वह अधूरे गुरु का शिष्य पूर्ण ज्ञान नहीं होने से जन्म-मरण लख चौरासी के कष्टों को उठाएगा। नानक साहेब कहते हैं कि पूर्ण परमात्मा कुल का मालिक एक अकाल पुरुष है तथा एक घर (स्थान) सतलोक है और दूजी कोई वस्तु नहीं है।
गलत नाम मूर्खों की उपासना।।
राधास्वामी पंथ के मुखिया शिवदयाल जी को सतनाम का कोई ज्ञान नहीं था। कई भक्तों ने बताया कि हमारे गुरुदेव जी केवल राधा स्वामी नाम देते हैं श्री शिवदयाल सिंह जी इन्हीं पांच नामों (ररंकार, औंकार, ज्योति निरंजन, सोहं तथा सतनाम) का जाप करते थे। राधास्वामी पंथ के मुखिया शिवदयाल जी का कोई गुरु नहीं था। जबकि यह नाम कबीर साहिब ने कहीं भी अपने शास्त्र में वर्णन नहीं कर रखा। न ही किसी अन्य शास्त्र (वेद-गीता जी आदि) में प्रमाण है। इसलिए शास्त्र से विपरीत साधना होने से नरक प्राप्ति होती है।
वाणी है :–
कबीर, दादू धारा अगम की, सतगुरु दई बताय। उल्ट ताही सुमरण करै, स्वामी संग मिल जाय।।
राधास्वामी वाले कहते हैं कि कबीर साहिब ने दादू साहिब को कहा कि धारा शब्द का उल्टा राधा बनाओ और स्वामी के साथ मिला लो यह राधा स्वामी मन्त्र हो गया। प्रथम तो यह वाणी दादू साहिब की है न कि कबीर साहिब की। और इस साखी का अर्थ बनता है कि दादू साहिब कहते हैं कि मेरे सतगुरु (कबीर साहिब) ने मुझे तीन लोक से आगे (अगम) की धारा (विधि) बताई कि तीन लोक की साधना को छोड़कर (उल्ट कर) जो सत्यनाम व सारनाम दिया है वह आपको सतपुरुष से मिला देगा। मनुष्य जन्म का मिलना अति दुर्लभ है। इसको अनजान साधनाओं में नहीं खोना चाहिए। पूरे गुरु की तलाश करें जो कि परमात्मा का भेजा तत्वदर्शी संत हो। जो तीन चरणों में मोक्ष मंत्र देकर सतभक्ति करवाए।
नकली गुरु को त्याग देना पाप नहीं।
गीता अध्याय 3 के श्लोक 35 में कहा है कि दूसरों की गलत साधना (गुण रहित) जो शास्त्रानुकूल नहीं है। चाहे वह कितनी ही अच्छी नजर आए या वे अज्ञानी चाहे आपको कितना ही डराये उनकी साधना भयवश होकर स्वीकार नहीं करनी चाहिए। अपनी शास्त्रानुकूल सतगुरु जी द्वारा दिया गया उपदेश पर दृढ़ विश्वास के साथ लगे रहना चाहिए। विचलित नहीं होना चाहिए। अपनी सत्य पूजा अंतिम श्वांस तक करनी चाहिए तथा अपनी सत्य साधना में मरना भी बेहतर है।
कबीर, करता था तो क्यों रहा, अब कर क्यों पछताय। बोवै पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय।।
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